चेहरे का नहीं, काबिलियत का सम्मान चाहिए — विटिलिगो को नहीं, सोच को बदलें”

“चेहरे का नहीं, काबिलियत का सम्मान चाहिए — विटिलिगो को नहीं, सोच को बदलें”

“रूप से नहीं, काबिलियत से आँको!”
मैं रविन्द्र जायसवाल — और आप देख रहे हैं Vitiligo Support India

विटिलिगो… एक ऐसी त्वचा की स्थिति जो सिर्फ रंग को बदलती है, इंसान को नहीं।
लेकिन हमारे समाज में आज भी इंसान की पहचान उसके चेहरे से होती है — हुनर से नहीं।

एक सच्ची घटना जो दिल दहला देती है:

हाल ही में मुझे एक ऐसा वाकया पता चला जिसने मेरी आत्मा को झकझोर दिया।

एक पढ़ी-लिखी, आत्मविश्वासी लड़की को एक स्कूल में फ्रंट डेस्क की नौकरी मिली।
काम में परफेक्ट, व्यवहार में नम्र, और काबिलियत में कोई कमी नहीं।

लेकिन कुछ ही दिनों में उसे वहाँ से हटा दिया गया…

क्यों?
क्योंकि उसके चेहरे पर विटिलिगो था — सफेद दाग़ थे।

अब उसे एक बंद कमरे में बैठाकर कॉलिंग का काम दिया गया है,
जहाँ कोई उसे देख न सके, कोई सवाल न उठाए।

क्या ये है काबिलियत का सम्मान?

क्या सवाल सिर्फ रंग का है?

  • क्या चेहरे से कोई योग्य या अयोग्य हो जाता है?

  • क्या हुनर, मेहनत और ईमानदारी का कोई रंग होता है?

  • क्या हम अब भी रूपवाद में फंसे हुए हैं?

विटिलिगो के साथ जी रहे हज़ारों लोग — और उनके डर:

  • इंटरव्यू में बुलाया जाता है, देखा नहीं — बस जज कर लिया जाता है।

  • नौकरी मिलती है, पर प्रकाश में नहीं, छाया में

  • समाज कहता है — “चेहरे पर दाग है, ग्राहक क्या सोचेंगे?”

लेकिन क्या कोई दाग़ किसी की मेहनत को फीका कर सकता है?

विटिलिगो को समझिए — डरिए मत:

  • यह संक्रामक नहीं है।

  • यह अनुवांशिक या ऑटोइम्यून स्थिति है।

  • यह न छूने से फैलता है, न नज़दीक बैठने से

  • और सबसे जरूरी — यह इंसान के हुनर या सपनों को छू भी नहीं सकता

एक कविता — हर उस आवाज़ के लिए जो दबा दी जाती है:

“मैं दाग नहीं, इंसान हूँ…”

चेहरे पर हैं कुछ सफेद धब्बे,
पर दिल में है सपनों की चमक।
तू मुझे देखता है अजीब नज़रों से,
पर मेरी आंखों में भी है दमक।

तू पूछता है — “ये क्या है?”
मैं मुस्कराकर कहती हूँ —
“ये मेरे हिस्से की अलग पहचान है।”

ना ये फैलेगा,
ना मेरी हँसी चुराएगा।
ना मेरी मेहनत पर पर्दा डाल पाएगा।

मैं भी सपना देखती हूँ,
पढ़ना, बढ़ना, उड़ना चाहती हूँ।
पर तेरी सोच की दीवारें,
हर बार मेरे पंख रोक लेती हैं।

मुझे नौकरी चाहिए — सहानुभूति नहीं।
मुझे मौका चाहिए — दया नहीं।

एक दिन आएगा…
जब चेहरा नहीं, काबिलियत देखी जाएगी।
और उस दिन —
मैं नहीं, हम सभी जीतेंगे।

तो आइए — एक नई सोच के साथ आगे बढ़ें:

  • रंग से नहीं, रुचि से पहचानें

  • दया से नहीं, दायित्व से आगे बढ़ाएं।

  • सहानुभूति से नहीं, सम्मान से जोड़ें।

“मैं दाग नहीं, इंसान हूँ —
अपने हक़ के लिए खड़ी पहचान हूँ…”

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