“क्या मैं अशुभ हूँ?” | विटिलिगो और परंपराओं से जुड़ा सच

“क्या मैं अशुभ हूँ?” | विटिलिगो और परंपराओं से जुड़ा सच

By: Ravindra Jaiswal


“क्या सिर्फ हमारी त्वचा का रंग बदल जाने से हम किसी शुभ कार्य के लायक नहीं रहते?”

“समाज की सबसे बड़ी बीमारी यह नहीं है कि वो हमें अलग समझता है,
बल्कि यह है कि वो हमें ‘अशुभ’ मान लेता है।”


🕯️ “जब अपनों की ज़रूरत होती है…”

शादी, पूजा, त्योहार –
जब सबसे ज़्यादा परिवार की ज़रूरत होती है,
तभी हमें सबसे ज़्यादा दूर कर दिया जाता है।

“मैंने भी इस दर्द को जिया है।”

परिवार में शादी थी।
चारों तरफ रौशनी, ढोल, हँसी –
मैं भी उस खुशी का हिस्सा बनना चाहता था।
लेकिन… शादी से एक दिन पहले मुझसे कहा गया –
‘तुम मंडप के नीचे मत आना।’


“उस पल किसी ने नहीं सोचा कि मेरे दिल पर क्या बीती होगी।”
शायद अगर पहले ही कह दिया होता – ‘तुम मत आना’,
तो कम से कम अपमान से तो बच जाते।


लेकिन अब मैं चुप नहीं रहूंगा।
यह मानसिकता बदलनी होगी।

हम ‘अशुभ’ नहीं हैं।
हमारी उपस्थिति किसी की किस्मत नहीं बिगाड़ती।
हम भी हर एक खुशी के उतने ही हक़दार हैं,
जितने कोई और।


🧡 “हम भी रौशनी हैं, कोई परछाईं नहीं।”

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